(एलेक्स बिट्टी, विक्टोरिया यूनिवर्सिटी ऑफ वेलिंगटन द्वारा ‘द कन्वरसेशन’ में प्रकाशित विश्लेषण)
वेलिंगटन, 18 अक्टूबर — आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया का इस्तेमाल हर उम्र के लोग करते हैं, लेकिन हाल के महीनों में विभिन्न देशों में किशोरों पर सोशल मीडिया प्रतिबंधों की ओर बढ़ता रुझान देखने को मिला है। सरकारें और नीति निर्माता अब यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे टिकटॉक, इंस्टाग्राम और स्नैपचैट किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक विकास के लिए हानिकारक हैं।
ऑस्ट्रेलिया ने इस दिशा में पहला बड़ा कदम उठाते हुए 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों पर सोशल मीडिया अकाउंट रखने पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की। इसके तुरंत बाद डेनमार्क ने भी 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए ऐसा ही निर्णय लिया। डेनमार्क की प्रधानमंत्री ने सोशल मीडिया और मोबाइल फोन को “बचपन चुराने वाला माध्यम” बताया। न्यूजीलैंड, ब्रिटेन, फ्रांस, नॉर्वे, पाकिस्तान और अमेरिका भी इस तरह के प्रतिबंधों पर विचार कर रहे हैं या उन्हें लागू कर चुके हैं। इनमें से कई देशों में अब सोशल मीडिया उपयोग के लिए डिजिटल आईडी सत्यापन और माता-पिता की सहमति को आवश्यक बनाने की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं।
इन उपायों का औपचारिक उद्देश्य बच्चों को अश्लील सामग्री, ऑनलाइन व्यसन और मानसिक स्वास्थ्य संकट से बचाना है। हालांकि, इस सुरक्षा के पीछे एक और गहरी परत है — नैतिक नियंत्रण और सांस्कृतिक मूल्यों का पुनरुत्थान।
विक्टोरियन युग की वापसी?
ब्रिटिश इतिहास में विक्टोरियन युग (1820–1914) एक ऐसा दौर था जब सामाजिक व्यवहार पर सख्त नियंत्रण, शालीनता और औपचारिकता का बोलबाला था। स्कूलों और सार्वजनिक जीवन के ज़रिए युवाओं को सामाजिक अनुशासन सिखाया जाता था। आज की दुनिया में डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लगाई जा रही पाबंदियां इसी तरह के नैतिक अनुशासन को दोहराने का संकेत देती हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि समाज युवाओं की डिजिटल गतिविधियों को एक “नैतिक गिरावट” के रूप में देख रहा है, जबकि असल में सोशल मीडिया कई युवाओं के लिए रचनात्मकता, अभिव्यक्ति और संवाद का एक प्रभावशाली माध्यम बन चुका है। टिकटॉक, यूट्यूब और इंस्टाग्राम जैसे मंचों पर युवा न सिर्फ मनोरंजन करते हैं, बल्कि नए तरह के संवाद, मीम्स, वीडियो रीमिक्स और कहानी कहने के अनोखे माध्यमों को भी जन्म दे रहे हैं। ये सब डिजिटल साक्षरता के विकसित रूप हैं, न कि नैतिक पतन के संकेत।
युवाओं को नहीं, मंचों को नियंत्रित करें
इस बढ़ती चिंता के बीच एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या समस्या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की संरचना और उनके एल्गोरिद्म में है, या फिर केवल उपयोगकर्ताओं की आयु में? क्या बच्चों को डिजिटल दुनिया से बाहर करना ही समाधान है, या फिर प्लेटफॉर्म्स को ज़िम्मेदारी और पारदर्शिता के साथ संचालित करना?
लेख में सुझाव दिया गया है कि जैसे हम बच्चों को खेल के मैदान में जाने से नहीं रोकते, बल्कि उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं, वैसे ही डिजिटल स्पेस को भी सुरक्षित बनाना चाहिए। सोशल मीडिया कंपनियों को चाहिए कि वे अपने एल्गोरिद्म को पारदर्शी बनाएं, रिपोर्टिंग मैकेनिज्म को बेहतर करें और उम्र सत्यापन की ठोस व्यवस्था लागू करें।
