नई दिल्ली: हाल के वर्षों में चुनाव पूर्व राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं को सीधे नकद हस्तांतरण (कैश ट्रांसफर) की योजनाओं की घोषणा एक आम और लोकप्रिय रणनीति बन गई है। लगभग हर बड़ा दल इस “आजमाए और परखे हुए फॉर्मूले” को अपनाता दिख रहा है। इसका उद्देश्य न केवल महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त करना है, बल्कि उन्हें चुनावी समर्थन के लिए आकर्षित करना भी है।बिहार चुनावों के उदाहरण से स्पष्ट होता है कि यह प्रवृत्ति किस तरह तेजी से बढ़ रही है। राज्य सरकार भी चुनाव से पहले इस बात पर विचार कर रही थी कि क्या सीमित बजटीय संसाधनों के बावजूद ऐसी योजना लागू करना संभव हो पाएगा। विशेषज्ञों का कहना है कि यह योजनाएँ अल्पकालिक रूप से महिलाओं को राहत तो देती हैं, लेकिन दीर्घकालिक आर्थिक विकास और संरचनात्मक बदलाव का विकल्प नहीं बन सकतीं।राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि महिलाओं को केंद्र में रखकर बनाई गई नकद योजनाओं से दोहरा फायदा उठाने की कोशिश होती है। पहला, यह प्रत्यक्ष रूप से महिलाओं तक लाभ पहुंचाकर उन्हें परिवार में निर्णायक भूमिका देने का दावा करता है। दूसरा, यह चुनावी राजनीति में महिला मतदाताओं को लुभाने का एक सशक्त साधन बन जाता है।हालांकि, इस तरह की योजनाओं पर आलोचना भी होती है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि बजट में पर्याप्त प्रावधान नहीं हैं, तो ऐसे कार्यक्रम राज्य की वित्तीय स्थिति पर भारी बोझ डाल सकते हैं। वहीं, सामाजिक विशेषज्ञों का कहना है कि केवल नकद राशि देने के बजाय शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसी बुनियादी सुविधाओं में निवेश करना महिलाओं के वास्तविक सशक्तिकरण की दिशा में ज्यादा प्रभावी होगा।कुल मिलाकर, नकद हस्तांतरण योजनाएँ चुनावी राजनीति का अहम हिस्सा बन चुकी हैं। लेकिन सवाल यही है कि क्या ये योजनाएँ महिलाओं की दीर्घकालिक प्रगति का आधार बन पाएंगी या केवल चुनावी मौसम तक सीमित रह जाएंगी।
