दिल्ली उच्च न्यायालय ने नाबालिग विवाह में यौन उत्पीड़न मामले में आरोपी पति के खिलाफ मामला रद्द करने से किया इनकार

नई दिल्ली, 20 नवंबर  – दिल्ली उच्च न्यायालय ने नाबालिग लड़की से शादी करने के बाद उसके साथ यौन उत्पीड़न के आरोपी व्यक्ति के खिलाफ मामला रद्द करने से इनकार कर दिया है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी भी कानून में ऐसे अपवाद नहीं बनाए जा सकते, जो नाबालिग के साथ यौन संबंधों को अपराध मानने के प्रावधान को कमजोर करें।

अदालत ने कहा कि वह मानवीय परिस्थितियों को समझती है, लेकिन कानून की मजबूरी सर्वोपरि है। न्यायालय ने यह निर्णय ऐसे समय में लिया जब मामला बहुत संवेदनशील था और पीड़िता ने स्वयं आरोपों को खत्म करने का अनुरोध किया था।

मामले का संक्षिप्त विवरण

यह मामला पॉक्सो अधिनियम (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण) और बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत दर्ज प्राथमिकी से संबंधित है। आरोपी और उसके माता-पिता ने अदालत में याचिका दायर कर मामले को रद्द करने की मांग की थी। पीड़िता ने कहा कि वह अपने पति, जिससे उसका एक बच्चा है, और ससुराल वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं चाहती और उसने कभी यौन उत्पीड़न का अनुभव नहीं किया।

न्यायमूर्ति संजीव नरूला ने अदालत को बताया कि प्राथमिकी को रद्द करना बाल विवाह और नाबालिगों के साथ यौन संबंधों के लिए खतरनाक संदेश देगा। यदि ऐसा हुआ, तो यह माना जाएगा कि नाबालिग विवाह की कानूनी कार्रवाई को रोका जा सकता है, बशर्ते शादी के बाद पक्षकार एक स्थिर परिवार की तरह पेश हों।

न्यायालय का तर्क

अदालत ने स्पष्ट किया कि पॉक्सो अधिनियम के तहत नाबालिग की सहमति अप्रासंगिक है।

अदालतें “लगभग वयस्क, सहमति वाले संबंध” के लिए कोई अपवाद नहीं बना सकतीं।

संसद ने 18 वर्ष की आयु तय की है, और इसके नीचे की सहमति वैध नहीं मानी जाती।

किसी नाबालिग से जुड़े रिश्ते में बाद में हुई घटनाएँ जैसे साथ रहना, बच्चे का जन्म होना या पीड़िता की सहमति, उस अपराध को वैध नहीं बना सकती।

न्यायालय ने कहा कि कानून और न्याय की सीमाएँ पार नहीं की जा सकतीं।

न्यायाधीश ने विशेष रूप से कहा, “अदालतों को उन मामलों में ‘सहमति से संबंध’ जैसी भाषा का प्रयोग करने में सावधानी बरतनी चाहिए। यदि अभियोजन यह साबित करता है कि पीड़िता नाबालिग थी और प्रतिबंधित कृत्य हुआ, तो उसकी सहमति अपराध से बचाव का आधार नहीं बन सकती।”

पीड़िता और परिवार की स्थिति

जांच में पता चला कि लड़की की उम्र 16 साल 5 महीने थी, और यह शादी दोनों पक्षों के माता-पिता की सहमति से हुई थी। वे पति-पत्नी की तरह साथ रह रहे थे। अब वयस्क हुई लड़की अपने नवजात बच्चे के साथ अदालत में पेश हुई और कहा कि यह रिश्ता स्वैच्छिक था और उसने मामला बंद करने की अपील की।

न्यायालय ने इस तथ्य को देखा कि यह मामला युवा परिवार की स्थिरता से जुड़ा है, लेकिन स्पष्ट किया कि यह कानून की बाध्यता को कमजोर नहीं कर सकता। दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह संदेश दिया कि कानून की रक्षा नाबालिगों के हितों के लिए सर्वोपरि है। अदालत ने साफ किया कि किसी भी मानवीय या व्यक्तिगत परिस्थिति के आधार पर नाबालिग विवाह और यौन उत्पीड़न के मामलों में अपवाद नहीं बनाए जा सकते। न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा कि कानून और न्याय की संतुलित व्यवस्था सुनिश्चित करना सर्वोच्च प्राथमिकता है, और किसी भी कानूनी प्रक्रिया में नाबालिगों की सुरक्षा सर्वोपरि रहती है।

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